इस देश को पीछे धकेलने में और प्रगति की रफ्तार को कम करने में यदि कोई सोच,विचार, भावना ज़िम्मेदार है तो वह हमारा जातिवादी सोच है.
यह बात अनेक प्रबुद्ध विचारकों, समाज सुधारकों एवं समाजशास्त्रियों ने ठोक-बजा कर कही है. बार बार कही है.
किंतु हमारे राजनेताओं की मोटी बुद्धि में यह छोटी बात नहीं घुसती.
मेरा यह मानना है कि यदि 1990 में मंडल आयोग की शिफारिशों को लागू नहीं किया जाता तो देश अभी जहां है ,उससे कहीं आगे होता.
राजनेता व राजनैतिक दल आखिर क्यों जाति से चिपके रहने चाह्ते हैं ?
सीधी सी बात है कि जहां जहां जाति को एक चुनावी हथियार के रूप में आगे किया गया है ,वहां राजनेताओं की चान्दी ही रही है. जाति के पर्दे में उनके सभी गुनाह, नाकारापन, चालबाज़ियां,दुष्टत्ता, आदि छुप जाते हैं.
यही कारण है कि जनगणना के सवाल पर लगभग सभी दलों ने एक ही तुरही बजाई और जनगणना में जाति पूछे जाने का समर्थन किया.
मेरा उनको यही सुझाव है कि जनगणना में जाति तक ही सीमित क्यों रहें?
उपजाति, प्रजाति, खाप, गोत्र, अल्ल और जो भी कुछ ऐसी जानकारी हो सकती है जिससे हमारी एकता में फूट आये ,ज़रूर पूछी जाये ताकि आने वाले समय में देश छोटे छोटे कबीलों मे बंट जाये.
क्या कहा प्रगति ?विकास ?एकता? भाईचारा ?
अरे जाने भी दो यारो ..इन सबसे हमें क्या ?
हमॆं अपनी अपनी रोटियां सेंकने दो. देश जाये भाड़ में.
फिर फिर से ....
5 वर्ष पहले